ध्यान साधना – अंतर जगत का अनुभव

प्रार्थना में आप प्रभु से बात करते हैं, ध्यान साधना में प्रभु आप से बातें करते हैं । ध्यान साधना का मार्ग आपको अन्तः जगत में ले जाता है, जहाँ परमात्मा का राज्य होता है ।

कल्पना कीजिये कि पूर्णिमा की रात में शांत निस्तब्ध झील है, उस स्थिर जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब साफ़ दिखाई देगा , गोलाकार, रजत श्वेत, शीतल, सुन्दर। जिसे देख कर आपकी आत्मा आनंद विभोर हो उठेगी ।

अब झील में एक कंकड़ फेंक दें अथवा  कल्पना करें की तेज हवा जल के शांत तल पर लहरें पैदा कर  रही हैं। अब उस पानी में चन्द्रमा का बिम्ब हजारों टुकड़ों में तैरता दिखेगा। यह सच है की गहराई  में झील सर्वथा शांत और स्थिर होगी । शीघ्र ही लहरें शांत हो जायेंगी और चन्द्रमा का पूर्ण बिम्ब फिर शांत से जल में उभर आएगा ।

सारतः मानव चित्त गहराई में झील की भाँती शांत और मौन होता है। लेकिन ऊपरी सतह पर यह अन्तर उद्वेगों से क्षुब्ध रहता है।  प्रतिदिन विचार, स्मृतियाँ , महत्वपूर्ण चिंताएं मन को उद्वेलित किये रहती है। चन्द अप्रिय शब्द आपमें नकारात्मक विचार एवं भावनाएं जगायेंगे,  झील का शांत जल, लहरियों से विक्षुब्ध हो उठेगा । ये लहरियां चाहे क्रोध की हों चाहे इर्ष्या की या चिंता की , आपके चित्त की शान्ति को खंडित कर देगी . विरोध भाव आप में व्याप्त हो जाएगा।  यदि यही प्रक्रिया बार बार दोहराई जाय तो आपको दबाव ग्रस्त बनाएगी और अंततः आप अस्वस्थ हो जायेंगे और गंभीर रोग भी हो सकता है ।

हम इन नकारात्मक भावनाओं, मानसिक उद्वेगों और शरीर में  विपरीत उन रासायनिक प्रतिक्रियाओं को कैसे रोक सकते हैं, जिनसे हम दुखी होते हैं और हमारा स्वास्थ्य  बिगड़ता है ? संगीत, कला, खेल, व्यायाम तथा ठहाकों सहित अनेक विधियों की चर्चा होती रहती है । ये सभी विधियाँ सहायक हो सकती हैं किन्तु इनमे सबसे अधिक प्रभावशाली विधि है “ध्यान साधना” , अपने अन्तः जगत की यात्रा ।  क्योंकि जैसे जैसे चित्त गहरे में उतरता जाता है , हम अपनी प्रकृति के शांत भाव के दर्शन करते हैं । अंतर्मन में असीम आनंदयुक्त आत्मा है जहाँ निस्तब्धता, मौन एवं शान्ति का वास होता है ।

जब हम नियमित रूप से ध्यान साधना करते है तो आंतरिक शान्ति हमारी  चेतना में जमी रहती है। उस समय हम चाहे जो क्रिया करे, विपरीतताओं के बीच  भी स्थिरता आती है । नकारात्मक विचार और भावनाएं विलीन हो जाती है और सकारात्मक विचारधारा चलने लगती है । चित्त के विस्तार के साथ प्रसन्नता बढती है और हम तनाव को प्रभावी ढंग से झेल पाते हैं ।

सामान्य दिनचर्या में हम अपने बाह्यस्वरूप-शरीर  को ही जानते हैं। हम अपनी आत्मा, चित्त और बुद्धि के विषय में भी कुछ कुछ जानते हैं लेकिन हम विराट अंशी  के अंश अंतरात्मा को नहीं जानते । ध्यान साधना के द्वारा हम अपनी सत्ता के इस अंग के संपर्क में भी आते हैं । ध्यान साधना का अनुभव हमें आनंद भाव  में ले जाता है न कि निष्क्रियता में . हम जीवन्तता का आनंद लेते हें किन्तु मृत्यु से भयभीत होने की जरुरत नहीं । हम जान पाते हैं कि दबाव तनाव को कैसे झेलें, उनसे भागें नहीं, हम जान पाते हैं कि कैसे इस जगत को पूर्णता से जियें ।

ध्यान साधना हमे ये शिक्षा भी देती है कि अपना ध्यान कैसे रखें, जिससे हम अपने लिए तो उपयोगी हों ही औरों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हों । ध्यान साधना जीवन से स्वार्थपूर्ण अलगाव नहीं है। इससे प्राप्त लाभ हमारे तक ही सीमित नहीं रहता, हमारे आस पास का वातावरण भी प्रभावित होकर ओरों को भी लाभान्वित करता है जिससे अंततः सम्पूर्ण  विश्व लाभान्वित होता है ।

जब हम प्रतिदिन नियमित रूप से ध्यान साधना करते हैं  और आत्म शान्ति तथा प्रेम से अपने कर्त्तव्य कर्म करते हैं तो परमात्म भाव से भरे रहते हैं. ईशावास्य उपनिषद में कहा है कि –

जो मनुष्य (ज्ञान ) और कर्म के तत्व को साथ साथ वास्तव में जान लेता  है वह कर्मों के

अनुष्ठान से मृत्यु को पार करके ध्यान के अनुष्ठान से अमृतत्व ( अमरता ) को भोगता है।

आत्म चेतना की जागृति और आध्यात्मिक विकास के लिए ध्यान साधन और कर्म दोनों की आवश्यकता होती है।  जीवन के इन दोनों पक्षों को जीने से ही वास्तविक पूर्णता आती है- पूर्ण प्रचुरता से भौतिक जीवन और पूर्ण आध्यात्मिक  जीवन के उदात भाव से जीवन परिपूर्ण हो जाता है ।

ध्यान साधना है क्या ?

कुछ लोगों के लिए “ ध्यान “ का अर्थ गहन चिंतन अथवा प्रार्थना करना होता  है । मैं इस धारणा और संस्कृत शब्द “ध्यान “ की ध्वनि शान्ति चित्तता का अंतर बताना चाहूँगा . कुछ विधियों में चित्त के  केन्द्रीयकरण ओ ध्यान कहा जाता है लेकिन “ध्यान “ इससे कहीं सहज और सरल और स्वाभाविक होता है । इससे चित्त को अपने आप अपनी सामान्य सीमाओं से पार जाने दिया जाता है और (चौथी ) “तुरीय “ अवस्था प्राप्त की जाती है ।

जीवन में चेतना की तीन सामान्य अवस्थाएं – जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति  होती हें । ध्यान साधना का अर्थ है – मन की विचार तरंगों को ‘मौन “ की चौथी अवस्था में सुस्थिर करना और चेतना को विचार और भावनाओं से रहित कर उसे अन्तःजागृति, विशुद्ध आत्मशान्ति की अवस्था में ले जाना  । “ प्रार्थना में आप परमात्मा से बात करते हैं और ध्यान में परमात्मा आप से बात करता है.” और परमात्मा की भाषा मौन की भाषा है ।

मन से भी परे एक ऐसी सत्ता है जो मन के मौन में निवास करती है । वह परम निर्विकल्प रहस्य सत्ता है जिसे वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता । मानव मन और शुक्ष्म शरीर केवल उसी पर निर्भर करता है ।

सत्य तो यह है कि जो मन अविरल रूप से नाना प्रकार के संतोष प्राप्त करने में लगा रहता है, वह चौथी अवस्था सत-चित्त-आनंद की अवस्था प्राप्त करना चाहता है । यदि मन को थोड़े मार्गनिर्देश के साथ अपनी सहज स्वाभाविक गति करने दी जाय तो वह इस आनंदमयी अवस्था को प्राप्त कर सकता है । ध्यान साधना मन को सही दिशा देने का साधन है । यह अपनी सत्ता, अपनी अस्तित्वता में स्थिर होना है । आप अपने चित्त को मौन, शांत , अविकारी परम सत्ता में गति करने दें जो मन का निवास स्थान है । उस प्रभुसत्ता की और उन्मुख होने पर मन स्थिर झील की तरह शांत हो जाता है, जिसमे किसी भी प्रकार की लहरें और तरंगें नहीं उठती । यह मौन मन को सुखासीन करता है । नियमित ध्यान साधना करने से मन उसी में वास करने लगता है और आत्म चेतना प्रभुसत्ता में जमने लगती है ।

वेद कहते हैं कि विचार सागर की लहरों के सामान हैं जो उठते गिरते रहते हैं । लहरें जब अपनी गति से ही परिचित होती हैं तो कहती है कि “मैं लहर हूँ “. लेकिन उससे भी महान सत्य को देख नहीं पाती कि “मैं तो सागर हूँ “ . लहरें और समुद्र में कोई अंतर नहीं होता, चाहे लहरें कुछ भी मानें । जब लहर की उच्छलता शान्त होती है तो वह तुरंत सागर, अनंत, मौन और निर्विकल्प को पहचान लेती है । ध्यान साधना के दौरान मन की चंचलता को स्थिरता प्रदान करनी होती है जिससे आप जान सकें कि मैं लहर नहीं सागर हूँ. जैसे निर्वात स्थान पर दीपक की लौ  हिलती नहीं, स्थिर रहती है उसी प्रकार जिस योगी ने मन को नियंत्रित कर लिया है वह अविचल रूप से परमात्मा की प्राप्ति के लिए ध्यान साधना करता रहता है ।

ध्यान कैसे करें :

“ध्यान “ कैसे करें, यह समझाना उचित होगा।  शुरू में शांत बैठ जाइए और आँखें बंद कर लीजिये। आँखें बंद कर लेने से बाहरी बातों की और चित्त नहीं जाता ।  जिस स्थान पर ध्यान साधना करें वह शांतिपूर्ण हो । जमीन पर आसन बिछाकर बैठें, रीढ़ की हड्डी सीधी रहे, सिर, नाक और छाती एक सीध में हो । यदि संभव हो तो पद्मासन पर बैठें , नहीं तो अर्धपद्मासन पर,सिद्धासन या सुखासन पर बैठें । यदि इनमें से किसी भी आसन पर बैठना संभव नहीं हो सके तो कुर्सी पर बैठें। ध्यान साधना यथासंभव एक ही स्थान पर करें । यदि अपने घर से कहीं अन्यत्र गए हैं तो कहीं भी ध्यान साधना कर सकते हैं ।

ध्यान का बुनियादी सिद्धांत यह है कि मन में जैसे विचार आते जाते हैं उन्हें देखना है । विचार जैसे उठें, एक एक करके उन्हें देखते रहें, वे अच्छे बुरे कैसे हैं, इसका निर्णय नहीं करें, उनके साथ अपनी किसी भी प्रकार की भावना न जोड़ें । किसी विचार के अनुसार कोई क्रिया न करें . बैठें और विचारों को साक्षी भाव से देखते रहें ,  अर्थात किसी विचार में भाग नहीं लें, केवल देखें , जब बहुत से विचार उठें तो “साक्षी “ के स्थान पर आ जाएँ।

शुरू में किसी विचार के साथ कोई निर्णय न करने या भावनाएं न जोड़ने में कठिनाई आएगी । आप स्वयं ही देखेंगे कि कुछ  विचार अच्छे हैं , अन्य विचार बुरे हैं । लेकिन विचारों को आने, रूपाकार ग्रहण करके जाने देना है । उनके साथ अपना मन नहीं जोड़ना है ।

आत्म चेतना की चौथी – तुरीय -अवस्था में आप कुछ स्थान और कुछ समय अपने आत्मा के लिए भी  छोड़ें और उसे असीम की और जाने दें । आप केवल जैसा चाहें वैसा घटित होने के लिए प्रयत्न न करें। कुछ भी घटित होने के लिए तैयार रहें और स्वतः घटित होने दें । यदि आप उसके लिए प्रयास करेंगे तो वह कभी घटित नहीं होगा ।

कुछ समय पहले मैंने एक कहानी सुनी थी जिसमें यही भाव व्यक्त होता है । एक शतपदी कीट अपने सभी पैरों से बहुत ही सुन्दर नृत्य करता था । सभी पशु पक्षी और जीव जंतु उसके नृत्य को देखने एकत्रित होते थे और नृत्य की प्रशंशा करते थे । केवल कछुए को उस कीट से इर्ष्या होती थी क्योंकि वह तो चाहकर भी नृत्य नहीं कर सकता था । एक दिन कछुए ने उस कीट से शर्माते हुए पूछा कि जब वह 79 वां पैर उठाने से पहले 51 वां पैर कैसे उठाता है । तो वह शतपदी जीव सोचने लगा और अपने पाओं की ओर देखने लगा कि वह जब नाचता है तो कैसे पग संचालन होता है । इस सोच विचार का परिणाम ये हुआ कि वो कीट उसके बाद कभी नृत्य कर ही नहीं सका.

…………शेष अगले अंक में