अध्यात्म क्या है ?​

धर्म, मजहब, सम्प्रदाय अनेक हैं।  सभी का सार एक है। जिसके लिए एक शब्द प्रयोग किया जा सकता है  वो है “अध्यात्म” . अध्यात्म – आधी + आत्म, अर्थात आत्मतत्व का आधिक्य यानी अधिक आत्माओं से सम्बंधित।  देह रहित आत्माओं का मनुष्यता के परिदृश्य में कोई औचित्य नहीं, इसलिए अधिक आत्माओं का स्पष्ट अर्थ है – समाज।  जीते जागते जनों से निर्मित समाज। समाज निर्माण में, उसे सुदृढ़ करने में, सजाये-सँवारे रखने में जो तथ्य आवश्यक हैं, सहायक हैं, वह आध्यात्मिक हैं।  इस बात को ईशावास्योपनिषद दे मंत्र 6 एवं 7 तथा श्रीमद्भागवतगीता के 9/6 , 9/29 से 32 तक के श्लोक से भी प्रमाणित किया जा सकता है। जिनके धर्म-कर्म-अध्यात्म का सारा संरजाम  “निज” के लिए होता है, उन्हें स्वार्थी, पाखंडी, पलायनवादी कहा जा सकता है- अध्यात्मिक कतई नहीं। अध्यात्मके के साथ जो दूसरा शब्द जुड़ा है, वह है – योग। योग अर्थात जोड़, मेल, युक्ति, मुक्ति, साधन तथा उपाय।  व्यक्ति को व्यक्ति से, व्यष्टि को समष्टि से जोड़ने वाली पद्धति योग है। योग का उद्देश्य है – समाज में समानता कायम करना। “समत्व योग उच्चयते” . समत्व – समदृष्टि-अद्वैत की फिलॉसफी इसी से प्रमाणित हुआ करती है।  योग इस उद्देश्यपूर्ति हित संघर्ष का साधन है, साध्य नहीं।

योग को समझने के लिए तीन बातें समझनी जरुरी हैं।  पहली बात – चार प्रकार की वृतियों के लोग होते हैं, जिन्हें भारतीय  ऋषियों ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहा है। ब्रह्म में विचरण करने वाला प्रथम वृत्ति का व्यक्ति उपदेशक-शिक्षक की भूमिका में होता है।  वह आदरणीय होता है “पूज्य” नहीं, क्योंकि मानवीय कमजोरियां उसमें भी होती है। दूसरी वृत्ति का व्यक्ति अराजक तत्वों से समाज की रक्षा करता है। तीसरी वृत्ति का व्यक्ति विनिमय-व्यापार द्वारा जीवन के लिए जरुरी सामग्रियों का प्रबंध करता है। शूद्र श्रमिक, सेवक की भूमिका में रहता है।  यह वर्ग शूद्र इसलिए है की शेष तीनों की शुद्धता-जीवंतता-प्रभावोत्पादकता का यह आधार है। अब कीचड से कीचड़ तो धुलता नहीं, अतः यह चतुर्थ वर्ग ही वस्तुतः शुद्ध होता है। इसलिए शेष को साफ़ और सहज रख पाता है। यह तथ्य हर किसी को ज्ञात होने के कारण उल्लेखनीय नहीं है की मानव का वर्गीकरण गुण – कर्म के आधार पर हुआ है, जन्म के आधार पर नहीं।

दूसरी बात – मनुष्य दो चीजों से मिलकर बना है – देह और आत्मा।  देह में स्थूल, भौतिक अथवा माया और आत्मा है – शुक्षम, ऊर्जा , चेतना या ब्रह्म  . आत्मा ही “अर्थ” है, बगैर इसके देह व्यर्थ है। जिस व्यक्ति की आत्मा सुप्त है, यानी जो सिर्फ शरीर के तल पर जीता है वह पशु है। जागृत आत्मा अपने को चार तरह से अभिव्यक्त करती है – मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार।  इन्हें अंतःकरण चतुष्टय या अस्मिता भी कहते हैं। इन्द्रियों के विषय-स्पर्श, रस, गंध, दृश्य, श्रवण से मन में हलचल होती है, वह जुड़ती है – स्मिता से। चित्त में संचित संस्कार साथ देते हैं , इस तरह विचार बनते हैं और व्यक्ति आचार हेतु  चल पड़ता है। इसलिए योग के कार्य में सम्मिलित है – मन को स्थिर करना, अहम को तथा चित्त को निष्काम बनाना। बुद्धि निर्णय करती है-चित्त संकल्प करता है और व्यक्ति क्रियाशील हो जाता है। अतः योग के कार्य में – बुद्धि को स्थिर और चित्त को दृढ़ करना है।

तीसरी बात  – मानव चेतन होने के नाते स्वतंत्रता से  वांछित कर्म करने की शक्ति से युक्त है। कर्म की स्वतंत्रता के कारण वह किये गए कर्म के फल से आबद्ध है।  कहने का भाव यह है की मनुष्य पुरुषार्थी (भाग्य निर्माता) भी है और भाग्य संस्कार से बंधा (नियति के अधीन) हुआ भी।  योग पुरुषार्थ में अभिवृद्धि करता है, जिससे भाग्य-संस्कार कमजोर होता है। भाग्य अर्थात पूर्व जन्मों के कर्मों का फल।  संस्कार अर्थात इस जन्म के कर्मों का फल। वृत्तियों व् अंतःकरण चतुरष्टय आधार पर योग चार हैं – कर्म, ज्ञान, ध्यान और भक्ति।  योग की सिद्धि के लिए प्रत्याहार (एकाग्रता), धारणा,(शुभ विचार-सिंचन), ध्यान (मैं शरीर मात्रा नहीं) और समाधि(समाज में अधिकाधिक समानता का उपक्रम) आवश्यक है।  अस्तेय (अकेले उपभोग न करना), ब्रह्मचर्य (सत्य के अनुरूप आचरण), अहिंसा (स्वार्थवश आचरण न करना) और “सत्य” भी आवश्यक है।  चारों योगों में मुख्य तत्व है – “वैराग्य” , अपने लिए चाहना राग और सब के लिए चाहना वैराग्य । राग के रूप है – लोभ, मोह, वासना, मद, क्रोध, मत्सर यानी षडरिपु।  कर्म योग के सन्दर्भ में वैराग्य का त्यागना असंभव जितना ही कठिन है। यह संभव तब है, जब क्रिया समाज सापेक्ष होगी – व्यक्ति सापेक्ष नहीं। दरअसल ऐसे कर्म ही कर्म हैं और इनमें प्रवीणता – कुशलता प्राप्त करना ही योग है – योगः कर्मेशु कौशलम।

ज्ञान योग के सन्दर्भ में वैराग्य का अर्थ है – विद्या को ज्ञान बनाना।  विद्या का अर्थ है – रास्तों की जानकारी। जानकारी को सर्वहिताय प्रयुक्त करना ही ज्ञान है।  ध्यान योग के सन्दर्भ में वैराग्य का अर्थ है – कामना का अभाव, अर्थात निष्काम भाव। भक्ति योग के परिपेक्ष्य में ”वैराग्य”  है – ईश्वरीय सत्ता के प्रति श्रद्धापूर्वक समग्र समर्पण। अध्यात्म प्रेमी योग पथ का पथिक बनकर जब मंजिल तक पहुँचता है, तब वह “अध्यात्मयोगी”  हो जाता है। सम्बुद्ध-रहस्यदर्शी-समदर्शी-जीवन्मुक्त-ममवत्ता को उपलब्ध अद्वैत – समष्टि किसी भी नाम से उसे अलंकृत किया जा सकता है।

“रेकीतीर्थ फीचर्स”